तुम मिले (1)
सुकेतु ने एक बार अपने आप को आईने में देखा। सब कुछ सही था। लेकिन वह कुछ नर्वस फील कर रहा था। ऐसा नहीं था कि मुग्धा से ये उसकी पहली मुलाकात थी। वो दोनों एक दूसरे को पिछले छह महीने से जानते थे। इस बीच कई बार मिल भी चुके थे। आपस में एक दूसरे से खुले हुए थे। किन्तु आज की मुलाक़ात कुछ ख़ास थी। उसने आज मुग्धा से अपने दिल की बात कहने का फैसला लिया था। इसी कारण से थोड़ा नर्वस था। जब से मुग्धा उसके जीवन में आई थी उसकी दुनिया ही बदल गयी थी।
अपनी पत्नी सुहासिनी की मृत्यु का उसे गहरा सदमा लगा था। पत्नी की मृत्यु के बाद से सुकेतु बहुत उदास रहने लगा था। सुहासिनी के साथ जीवन का सफ़र शुरू ही किए हुए अभी दो साल ही हुए थे कि मृत्यु के क्रूर हाथों ने उसे सुकेतु से छीन लिया। जीवन के सफ़र में वह अकेला रह गया। बिना हमसफर के उसके लिए यह सफ़र एकदम बेरंग और बोझिल हो गया था। उसने अपने आप को समेट कर एक दायरे में बंद कर दिया था। उसके आसपास के लोग उसकी इस दशा से बहुत परेशान थे। कितना प्रयास किया उसकी माँ ने की वह दोबारा घर बसा ले किन्तु वह दोबार जीवन शुरू करने को तैयार नहीं था।
सुकेतु प्रारंभ से ही कुछ रिज़र्व नेचेर का था किन्तु पत्नी की मृत्यु के बाद तो वह और भी चुप रहने लगा। कुछ गिने चुने लोगों को ही उसके जीवन में प्रवेश की अनुमति थी। पत्नी की मृत्यु के बाद उनके लिए भी उसके मन की बात जान पाना कठिन हो गया था।
उसके गिनेचुने दोस्तों की लिस्ट में एक मेधा ही थी जिससे अक्सर वह अपने दिल की बात कर लिया करता था। मेधा के घर पर ही वह मुग्धा से मिला था। मेधा के घर पर लंच पार्टी थी। वह सबसे अलग बागीचे में खड़ा फूलों को निहार रहा था।
"इनसे मिलो ये हैं मुग्धा।"
मेधा ने उससे इंट्रोड्यूस कराते हुए कहा। सुकेतु ने नज़रें उठा कर देखा हलके रंग की सलवार कमीज पहने एक सांवली लड़की सामने खड़ी थी। उसकी सादगी उसकी खूबसूरती को और बढ़ा रही थी।
"फूल अपनी छोटी सी ज़िन्दगी में भी लोगों को कितना सुख दे जाते हैं। मुझे भी फूल बहुत पसंद हैं।"
मुग्धा ने मुस्कुराते हुए कहा। उसकी इस बात में जो गहराई थी उससे सुकेतु बहुत प्रभावित हुआ। दोनों बागीचे में बैठ कर बातें करने लगे। मुग्धा बहुत खुली सोंच की सुलझी हुई लड़की थी। सुकेतु उससे पहली बार मिल रहा था किन्तु वह उसके साथ बहुत सहज महसूस कर रहा था। उसके व्यक्तित्व में एक ठहराव था। जो उसके अपने व्यक्तित्व से मेल खाता था। मुग्धा एक कंपनी में फाईनैंस विभाग में काम कर रही थी। कुछ ही समय में दोनों एक दूसरे से खुल गए। चलते समय मुग्धा ने उसे अपना नंबर भी दिया।
घर आकर वह मुग्धा के बारे में ही सोंचता रहा। मुग्धा की सादगी, उसकी सोंच की गहराई इन सबने पहली ही मुलाकात में उसके दिल पर असर किया था। सुहासिनी के जाने के बाद पहली बार उसे ऐसा लगा जैसे उसके जीवन में किसी की ज़रुरत है। वह मुग्धा से और जान पहचान बढ़ाना चाहता था। कई बार उसने मुग्धा का नंबर मिलाना चाहा किन्तु संकोचवश मिला नहीं पाया। चार दिनों तक उसके मन में यही उहापोह रही कि वह मुग्धा को फोन करे कि नहीं। आखिरकार पांचवे दिन उसने मन में पक्का फैसला कर मुग्धा का नंबर मिलाया।
"हैलो मैं सुकेतु, याद है हम मेधा के घर पर मिले थे।"
"बिल्कुल याद है। आप सुकेतु हैं। उस दिन आपसे इतनी सारी बातें हुई थीं।"
"क्या हम फिर मिल सकते हैं ?"
"जी बिल्कुल... इस संडे की शाम को मिलते हैं।"
"संडे की शाम को ठीक रहेगा। कहाँ मिलें ?"
"मेधा के घर के पास जो कैफ़े है वह कैसा रहेगा।"
"जी ठीक रहेगा। तो संडे को मिलते हैं।"
सुकेतु संडे की शाम का इंतज़ार करने लगा।
पहली मुलाकात के बाद तो मुलाकातों का सिलसिला शुरू हो गया। हर मुलाकात के साथ सुकेतु का मन और भी पक्का हो जाता कि मुग्धा ही उसके जीवन के खालीपन को भर सकती है। उसे ऐसा लगता था कि मुग्धा भी उसकी तरफ वही आकर्षण महसूस करती है जो वह उसके लिए करता है किन्तु वह इस मामले में पहल करने में संकोच कर रही है। अतः इस मामले में उसे ही पहल करनी पड़ेगी। अपने आप को पूरी तरह तैयार करने के बाद उसने आज की मुलाकात तय की थी।
वो दोनों अपने पसंदीदा रेस्टोरेंट में मिले। मोमबत्ती की मद्धिम रोशनी में मुग्धा के चेहरे पर अलग ही आभा दिखाई पड़ रही थी। मुग्धा उसे आज कुछ अधिक आकर्षक लग रही थी। सुकेतु पूरे आत्मविश्वास के साथ मुग्धा से बोला।
"मेरी पत्नी सुहासिनी के जाने के बाद मैं बहुत अकेला हो गया था। माँ ने बहुत कोशिश की कि मैं दोबारा घर बसा लूं किन्तु मेरा मन इस बात के लिए राज़ी नहीं हुआ। पर जब से तुम मेरी ज़िन्दगी में आई हो मुझे महसूस होने लगा है कि वो तुम ही हो जो मेरे जीवन में खुशियाँ ला सकती हो। क्या तुम मेरी ज़िन्दगी का उजाला बनोगी।"
अपनी बात कह कर सुकेतु मुग्धा के जवाब का इंतज़ार करने लगा। उसकी बात सुन कर मुग्धा खामोश हो गई। उसकी इस खामोशी ने सुकेतु के दिल की धड़कनें बढ़ा दीं।
"क्या हुआ मुग्धा ? तुम कुछ बोलती क्यों नहीं हो ?"
कुछ और क्षणों तक चुप रहने के बाद मुग्धा ने कहा।
"सुकेतु पिछले कई महीनों से हम मिल रहे हैं। तुम्हारे रूप में मुझे बहुत अच्छा दोस्त मिला। मैं तुम्हारे साथ खुल कर बातें करने लगी। इस बीच मैंने अपने प्रति तुम्हारे आकर्षण को महसूस भी किया। दरअसल मैं खुद तुमसे इस बारे में बात करना चाहती थी।"
कहते हुए मुग्धा कुछ पलों के लिए रुकी। अपने मन के भावों को व्यवस्थित कर फिर बोली।
"सुकेतु तुम्हारे जैसा जीवनसाथी मिलना किसी भी लड़की के लिए सौभाग्य की बात है। पर मेरा भाग्य इतना अच्छा नहीं है। मैं तुम्हारी हमसफर नहीं बन सकती हूँ।"
उसकी बात सुन कर सुकेतु गंभीर हो गया।
"तुम मेरी हमसफर क्यों नहीं बन सकती हो ?"
"क्योंकी... मैं शादीशुदा हूँ।"
मुग्धा की यह बात सुन कर सुकेतु चौंक गया। इतने दिनों में मुग्धा ने यह बात कभी नहीं बताई थी।
"तुम यही सोंच रहे हो कि मैंने इतने दिनों में यह बात तुमसे क्यों छुपाई।"
सुकेतु चुप रहा।
"वो इसलिए क्योंकी मैं डरती थी कि तुम्हारे जैसा दोस्त कहीं मुझसे दूर ना हो जाए। मैं जिस मनोदशा से गुजर रही थी मुझे एक दोस्त की सख्त ज़रूरत थी। उस दिन मेधा की लंच पार्टी में तुम मिल गए। तुमसे बात करके लगा कि तुम मेरे अच्छे दोस्त बन सकते हो। इसलिए मैंने पहली मुलाकात में ही अपना नंबर दे दिया।"
सुकेतु मुग्धा की बात सुन रहा था। वह आगे बोली।
"पहली मुलाकात के बाद मुझे पूरा यकीन हो गया कि तुम ही मेरे सच्चे दोस्त बन सकते हो। जब भी मैं तुमसे मिलती थी तब मेरा यह यकीन और भी पक्का हो जाता था। साथ ही साथ यह डर भी बढ़ता जाता था कि कहीं मैं तुम जैसे दोस्त को खो ना बैठूं।"
मुग्धा कुछ पलों के लिए रुकी। एक बार सुकेतु की तरफ देखा। वह शांत भाव से मुग्धा की बात सुन रहा था।
"इस बीच मुझे इस बात का एहसास हो गया था कि तुम मुझसे प्रेम करते हो। कई बार मैंने चाहा कि तुमको सारी बात सच सच बता दूँ। लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाई। पर आज जब तुमने मिलने के लिए बुलाया तो मैं समझ गई थी कि तुम क्या कहना चाहते हो। मैं भी आज सब कुछ सच बता देने के इरादे से ही आई थी।"
अपनी बात कह कर मुग्धा चुप हो गई। सुकेतु भी सोंच में डूबा था। कुछ पलों तक दोनों के बीच मौन पसरा रहा। मुग्धा की सच्चाई जान कर सुकेतु के मन में हलचल मच गई थी। कई तरह के सवाल उसके मन में उठ रहे थे। उसने गंभीर स्वर में मुग्धा से कहा।
"तुम अगर मेरी भावनाओं से परिचित थीं तो तुमने पहले ही इस रिश्ते को आगे बढ़ने से क्यों नहीं रोक दिया। सिर्फ इसलिए कि तुम मेरी दोस्ती नहीं खोना चाहती थीं। या कोई और बात थी।"
सुकेतु के इस सवाल से मुग्धा ऐसे सकपका गई जैसे कि उसकी चोरी पकड़ी गई हो। खुद को संभाल कर बोली।
"दरअसल.....मैं भी तुमको चाहती हूँ।"
सुकेतु पहले ही उसके मन की बात जान चुका था। वह बोला।
"यह तो मैं पहले ही जानता था। तभी तो आज तुमसे अपने प्रेम का इज़हार करने आया था। पर मुझे तुम्हारे विवाहित होने के बारे में नहीं पता था।"
सुकेतु ने अपनी नज़रें उसके चेहरे पर टिका दीं।
"पर मुग्धा पति के होते हुए भी तुम मुझे चाहती हो...यह कैसे हो सकता है। मुझे सारी बात सच सच बताओ।"
मुग्धा ने आसपास नज़रें दौड़ा कर कहा।
"सब बताऊँगी। पर यहाँ नहीं। मेरे साथ मेरे घर चलो।"